प्रियंका श्रीवास्तव

प्रियंका श्रीवास्तव

शनिवार, 21 मई 2011

ओ मेरी माँ !

ये कविता उन सभी माँओं को समर्पित है, जो ऐसा जीवन जी रही हैं या फिर जी चुकी हैं। फिर भी कभी अपने अधिकारों और अपने लिए कुछ बोल नहीं पायीं हैं।


हर बेटी का होता है यही एक सपना,
बड़े होकर अपनी माँ जैसा बनाना।

पर मुझे कभी ऐसा नहीं है करना,
जीना है मुझे नहीं तिल तिल मरना।

नहीं जी सकती तुम्हारी तरह घुटकर,
नहीं मुस्करा सकती ताने सुनकर।

नहीं उठा सकती फेंकी हुई थाली,
नहीं सुन सकती रोज रोज की गाली।

जिसे तुम समझती हो अपना धर्म,
जिसे मानती हो अपने पूर्वजन्म के कर्म।

अपनी इच्छा जो छोड़ दी तुमने अधूरी,
सब का कारण है बस तुम्हारी कमजोरी।

अब तो ले आओ खुद में वो हिम्मत,
कि जग सके तुम्हारी सोयी हुई किस्मत।

हो सके दूसरों को इस बात का अहसास,
कि तुम्हारा होना है उनके लिए कितना खास।

जाने तुम कभी ऐसा कर भी सकोगी,
या फिर नियति मानकर जलती रहोगी।

इस लिए कहती हूँ ये बार बार मेरी माँ,
अच्छा है मुझमें कम ही है सहने की सीमा।

और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।

20 टिप्‍पणियां:

  1. और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
    क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।

    वाकई बहुत बढ़िया लिखती हैं सोनू जी.

    सादर

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  2. तुम वो बनो जो समाज को दिशा दिखा सके , माँ का मनोबल बनो .

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  3. ओजपूर्ण रचना...सोनू बिटिया को ढेरों शुभकामनाएँ...

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  4. वैसे वक्त काफी बदला तो है ..पर इतना भी नहीं की प्रियंका की बात को नकार सकें ... बहुत अच्छी रचना ...


    क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।

    इस पंक्ति में "ही" की जगह "है" आना चाहिए था शायद ..

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  5. इस लिए कहती हूँ ये बार बार मेरी माँ,
    अच्छा है मुझमें कम ही है सहने की सीमा।

    और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
    क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना। ... sonu beti tumhari soch ki prakharta ko mera aashish

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  6. बहुत सशक्त लेखनी है बिटिया की!
    शुभकामनाएँ!

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  7. "हो सके दूसरों को इस बात का अहसास,
    कि तुम्हारा होना है उनके लिए कितना खास।"
    समय ने करवट बदली है और धीरे-धीरे वैसा हो लगा है या कहो शुरुआत हो चुकी है.लेकिन किसी भी रुढ़िवादी परम्पराओं से बाहर आने में,प्रथाओं को तोड़कर निकल पाने में समय तो लगेगा क्योंकि इसके लिए अपनों को जगाना होगा,उन्हें समझाना होगा.सुन्दर सोच से प्रेरित कविता.

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  8. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  9. kya baat hai Di....apni beti ko bhi aapne kaviyatri bana diya...wo bhi khud se aage le jana chahti ho...:)

    meri shubhkamnanyen...!

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  10. हो सके दूसरों को इस बात का अहसास,
    कि तुम्हारा होना है उनके लिए कितना खास।
    सुन्दर. आपको साधुवाद.

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  11. बेटी सोंच में नयापन क्यों ?क्या बदलते समय की मांग है |लेखन के लिए शुभकामनायें

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  12. अधिकतर माँ ऐसी ही होती है. हमारी ये शुभकामनाये है कि आपको अपनी माँ जैसा न जीना पड़े.

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  13. वाह ! सुन्दर प्रस्तुति.
    नई पीड़ी का आक्रोश मुखर हो रहा है इस अनुपम अभिव्यक्ति में.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा. 'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.

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  14. जिसे तुम समझती हो अपना धर्म,
    जिसे मानती हो अपने पूर्वजन्म के कर्म।

    अपनी इच्छा जो छोड़ दी तुमने अधूरी,
    सब का कारण है बस तुम्हारी कमजोरी।


    इस लिए कहती हूँ ये बार बार मेरी माँ,
    अच्छा है मुझमें कम ही है सहने की सीमा।

    और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
    क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।

    bahut sashakt lekhni hai or bahut pragatisheel vichar... hum mayein wakai mei bahut hud tak aisi hi hoti hain jaisa apki beti ne likha...or hamari stithi ke liye kuch hud tak hum khud hi zimmedar hain....
    blog ki duniya mei nayi hoon... apke kadam agar mere blog mei paedngae to achha lagega...

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  15. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना!

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  16. और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
    क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।
    ...sach kahati hai bitiya.. sahne kee bhi es had hoti hai..
    prerak aur saarthak rachna prastuti hetu aabhar

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  17. आज 23/07/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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