ये कविता उन सभी माँओं को समर्पित है, जो ऐसा जीवन जी रही हैं या फिर जी चुकी हैं। फिर भी कभी अपने अधिकारों और अपने लिए कुछ बोल नहीं पायीं हैं।
हर बेटी का होता है यही एक सपना,
बड़े होकर अपनी माँ जैसा बनाना।
पर मुझे कभी ऐसा नहीं है करना,
जीना है मुझे नहीं तिल तिल मरना।
नहीं जी सकती तुम्हारी तरह घुटकर,
नहीं मुस्करा सकती ताने सुनकर।
नहीं उठा सकती फेंकी हुई थाली,
नहीं सुन सकती रोज रोज की गाली।
जिसे तुम समझती हो अपना धर्म,
जिसे मानती हो अपने पूर्वजन्म के कर्म।
अपनी इच्छा जो छोड़ दी तुमने अधूरी,
सब का कारण है बस तुम्हारी कमजोरी।
अब तो ले आओ खुद में वो हिम्मत,
कि जग सके तुम्हारी सोयी हुई किस्मत।
हो सके दूसरों को इस बात का अहसास,
कि तुम्हारा होना है उनके लिए कितना खास।
जाने तुम कभी ऐसा कर भी सकोगी,
या फिर नियति मानकर जलती रहोगी।
इस लिए कहती हूँ ये बार बार मेरी माँ,
अच्छा है मुझमें कम ही है सहने की सीमा।
और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।
बड़े होकर अपनी माँ जैसा बनाना।
पर मुझे कभी ऐसा नहीं है करना,
जीना है मुझे नहीं तिल तिल मरना।
नहीं जी सकती तुम्हारी तरह घुटकर,
नहीं मुस्करा सकती ताने सुनकर।
नहीं उठा सकती फेंकी हुई थाली,
नहीं सुन सकती रोज रोज की गाली।
जिसे तुम समझती हो अपना धर्म,
जिसे मानती हो अपने पूर्वजन्म के कर्म।
अपनी इच्छा जो छोड़ दी तुमने अधूरी,
सब का कारण है बस तुम्हारी कमजोरी।
अब तो ले आओ खुद में वो हिम्मत,
कि जग सके तुम्हारी सोयी हुई किस्मत।
हो सके दूसरों को इस बात का अहसास,
कि तुम्हारा होना है उनके लिए कितना खास।
जाने तुम कभी ऐसा कर भी सकोगी,
या फिर नियति मानकर जलती रहोगी।
इस लिए कहती हूँ ये बार बार मेरी माँ,
अच्छा है मुझमें कम ही है सहने की सीमा।
और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।