प्रियंका श्रीवास्तव

प्रियंका श्रीवास्तव

शनिवार, 21 मई 2011

ओ मेरी माँ !

ये कविता उन सभी माँओं को समर्पित है, जो ऐसा जीवन जी रही हैं या फिर जी चुकी हैं। फिर भी कभी अपने अधिकारों और अपने लिए कुछ बोल नहीं पायीं हैं।


हर बेटी का होता है यही एक सपना,
बड़े होकर अपनी माँ जैसा बनाना।

पर मुझे कभी ऐसा नहीं है करना,
जीना है मुझे नहीं तिल तिल मरना।

नहीं जी सकती तुम्हारी तरह घुटकर,
नहीं मुस्करा सकती ताने सुनकर।

नहीं उठा सकती फेंकी हुई थाली,
नहीं सुन सकती रोज रोज की गाली।

जिसे तुम समझती हो अपना धर्म,
जिसे मानती हो अपने पूर्वजन्म के कर्म।

अपनी इच्छा जो छोड़ दी तुमने अधूरी,
सब का कारण है बस तुम्हारी कमजोरी।

अब तो ले आओ खुद में वो हिम्मत,
कि जग सके तुम्हारी सोयी हुई किस्मत।

हो सके दूसरों को इस बात का अहसास,
कि तुम्हारा होना है उनके लिए कितना खास।

जाने तुम कभी ऐसा कर भी सकोगी,
या फिर नियति मानकर जलती रहोगी।

इस लिए कहती हूँ ये बार बार मेरी माँ,
अच्छा है मुझमें कम ही है सहने की सीमा।

और नहीं चाहती मैं तुम्हारी तरह बनाना,
क्योंकि जीना ही मुझे नहीं तिल तिल मरना।

गुरुवार, 19 मई 2011

सत्यमेव जयते की कसम !

टूटने लगती है हिम्मत लड़खड़ाने लगते हैं कदम,
छल-कपट के बीच , कब तक चलेगा विश्वास का दम।

उनके किये छलों को बार बार करते रहे माफ हम,
और देखिये फिर भी उपहास का पात्र बनते रहे हम।

सत्य जीतेगा एक दिन सुन सुन कर थक गए हम,
सत्य झूठ के पीछे मुँह छिपाए खड़ा रहता है हरदम।

झूठ के चेहरे पर बिखरी लाली और सत्य की आँखें नम,
चुपचाप कब तक ये तमाशा खड़े देखते रहें हम।

अब बतलाइए किस विश्वास को देखें और सुनें हम,
किस विश्वास से सत्यमेव जयते की लें हम कसम।

बुधवार, 18 मई 2011

कैसी दुनियाँ !

दिखा रहे हैं दिल में ख़ुशी, पर चेहरे पे नकली शोक,
पता नहीं हैं कैसे हाय रे ये दुनिया के नकली लोग।

शायद इनको मिलती है ख़ुशी दूसरे के दुःख पाने से,
नहीं कोई मतलब इनको  अपने सुख आने से।

अपनी मंजिल पाने को दूसरे पर चढ़ जाना है,
खींच कर टांग दूसरे की खुद आगे बढ़ जाना है।

पता नहीं दिल में भरकर बैठे हैं द्वेष ही द्वेष,
दिखा रहे मुँह पे है उनके प्यार का सन्देश।

इस जग रहकर मन में भरकर इतने सारे पाप ,
खुद ही सोचें ऐसे कहाँ तक पहुँच पाएंगे आप।


*सोनू की कलम से *

मंगलवार, 17 मई 2011

इंटर्नशिप में देखा !

प्रियंका अपनी इंटर्नशिप के लिए उदयपुर "नारायण सेवा संस्थान " नाम के अस्पताल में गयी थी, उसमें जो भी उन्हें लगा क्योंकि इससे पहले तो दिल्ली के ही अस्पतालों में ये काम किया था।

जब सर पर नहीं है कोई जिम्मेदारी,
तो आँखों होंगी ही सबकी भारी भारी.

कुछ तो होता काम चाहे ज्यादा या कम
हे भगवान कहाँ से कहाँ आ गए हम.

यहाँ तो बैठे बैठे सोते हैं हम फिर
अपनी किस्मत को रोते हैं हम.

इसके लिए की हमने कितनी लड़ाई
इसी के लिए ले ली थी सबसे बुराई।

न खाने का ठिकाना न पीने का स्रोत
दोष है इस जगह का या किस्मत का खोट।