प्रियंका श्रीवास्तव

प्रियंका श्रीवास्तव

बुधवार, 1 जनवरी 2025

आत्मसम्मान !(18)

आत्मसम्मान ! 

            माँ के न रहने का समाचार जैसे ही शंकर को मिला। वह दीदी के यहाँ पहुँचा तो शवयात्रा शुरू होने जा रही थी । 

शंकर बोले - "अब अम्मा की मिट्टी गाँव जायेगी ।" 

" नहीं उनकी विदाई यहीं से होगी गंगा घाट के लिए ।" आवाज दीदी की थी । 

                 अर्थी उठाई जाने लगी तो दो ओर उनके नाती और जैसे ही शंकर ने कंधा देना चाहा दामाद ने रोक दिया - " मिट्टी को हाथ न लगाना साले साहब ।" 

              शंकर ने सोचा चलो घाट पर लगा लूँगा अग्नि तो मैं ही दूंगा आखिर बेटा जो हूँ । सारी तैयारी होने पर शंकर सामने आया तो बड़े नाती ने रोक दिया - "मामा आपने नानी को इसी वचन के साथ माँ के साथ भेजा था कि नानी का आप मुँह नहीं देखेंगे और  दो सालों में न कोई खबर ही ली न ही आप मिलने आये। अब यह हक आप खो चुके हैं।" 
   
                   अन्त्येष्टि सम्पन्न हुई और शंकर खाली हाथ गाँव पहुँचा तो उसके मुँह से निकला - "माँ की इच्छा गंगाघाट पर जाने की थी सो हम वहीं से विदा कर आये ।" लेकिन अंदर ही अंदर उसकी आत्मा धिक्कार रही थी, पुत्र होकर भी मां को कंधा तक न दे पाया।●

क्षरण !(7)

                                  क्षरण  !


             "अरे ये क्या , हम क्या थे और क्या हो गये ?"
 
             "तुम हो कौन भाई , इस तरह क्यों बोल रहे हो ?"
 
             " भाई मैं संस्कार और संस्कृति हूँ । सृष्टि के साथ साथ आये थे हम , धीरे धीरे आदमी को जंगली से सभ्य बनाया था ।"
          
             "आपको कष्ट क्या है?" समाज बोला ।
 
           " कष्ट ये है कि आज से चार पीढ़ी पहले हमने सुख शान्ति से जीते परिवार , गाँव देखे थे । वे हमारी छाया में ही पल रहे थे । हर इंसान एक रिश्ते से बंधा था । ऊँचे , नीचे और जाति पाति से नहीं । भूखा कोई न मरता था , जो मालिक थे पेट भरने को अनाज देते थे । नाम तो लेना ही नहीं काका-काकी, भैया -भौजी, दादा- दाई ही कहते रहे , न जाने कौन छोटा और कौन बड़ा ।"
 
          "इसमें क्या बड़ी बात , आदमी पढ़ेगा लिखेगा तो इज्जतदार बनता है और फिर अपने स्तर के लोगों से ही मेलजोल रखता है ।" समाज ने दलील दी ।
 
           " वहीं से तो क्षरण हुआ हमारा , जो हमें इज्जत देते थे और उनके बच्चे शहर पढने गये तो संस्कार छान कर लिए यानी पिता से कम ग्रहण किये । पढ़ाई लिखाई की हनक आ गई । जुड़े रहे गाँव से । यहीं रहकर नौकरी कर ली ।"
 
           " फिर क्या हुआ? गाँव में ही रहे न । औरों को भी शिक्षित किया ।" समाज उस बदलाव को अब भी नहीं समझ पाया ।
 
        संस्कार ने गहरी साँस ली और चलने को हुआ तो समाज बोला -"पूरी बात तो करते जाओ ।"
 
          " लंबी गाथा है सुनोगे , अभी दो पीढ़ी बाकी है। तीसरी पीढ़ी के बच्चे जल्दी ही शहर निकल गये पढ़ाई के लिए , कभी तीज त्यौहार आ गये तो बहुत है । हमें वे उतना ही ले पाये जितना यहाँ रहे । दूसरी पीढ़ी से भी कम , अपने परिवार तक सीमित चाचा ,बुआ, मामा और मौसी तक बोलते रहे । अंग्रेजी में बोलने लगे ।"
 
          " वह शहर के होकर रह गये और भी कम संस्कार ले पाये । अंग्रेज बनने के चक्कर में नाते रिश्ते सब खत्म । इज्जत देने के तरीके बदल गये अब कोई पैर बड़ों के नहीं छूता , घुटने तक आ गये । उनके आगे की चौथी पीढ़ी संस्कार विहीन हो गई । जीवित पिता को डैड कर दिया और माँ को ममी । खून के रिश्ते और पास पड़ोसी ,परिचित सब अंकल आँटी हो गए । चंद बूँदें मिली उन्हें कि पिता को अपने कमाने तक इज्जत दी और फिर जीवन में माता-पिता की जरूरत खत्म ।"
 
           "कुछ और सुनना है , ये क्षरण हुआ हमारा न हम देशी रहे न विदेशी हुए ।"
 
         तुम तो समय के रंग में रंग जाते हो लेकिन संस्कृति और संस्कार स्वरूप बदलते बदलते दम तोड़ देते है ।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

ईर्ष्या!

 मोहिनी राशि के घर में आई तो उसकी आँखें लाल हो रहीं थी। राशि ने देखते ही पूछा - "मोहिनी कुछ हुआ क्या?"

    "नहीं मैम साब कुछ भी नहीँ।"

    "नहीं, कुछ छिपा रही हो, कुछ तो है।"

   थोड़ी सी सहानुभूति पाकर मोहिंनी रो पड़ी। राशि ने उसे रोने दिया कि दिल हल्का हो जायेगा।

     "अब बतलाओ कि हुआ क्या है?"

      "आज मैं कपूर मैम साब के यहाँ काम पर गई तो उन्होंने कहा -  "अब तुमको कल से काम पर आने की जरूरत नहीं है।"

        मुझे कुछ समझ में नहीं आया - "मैम साब मुझसे क्या गलती हो गई और गलती हो भी गई हो तो माफ कीजिएगा। मैं कितने वर्षों से आप के यहाँ काम कर रही हूँ।"

   "नहीं कोई बात नहीं, कोई भी गलती नहीं की तुमने लेकिन फिर भी मैं अब तुम्हें अपने घर में नहीं रख सकती।"

       "फिर भी कोई कारण तो बता ही दीजिए ताकि मैं भी अपने दिल में तसल्ली कर लूँ कि आपने मुझे क्यों निकाल दिया है?" 

       "इसका कारण तुम नहीं बल्कि इसका कारण है यह सिस्टम, जिसने हम जैसे लोगों से हजारों रुपए वसूल करनेवाले स्कूलों को बनाया और फिर हर महीने अलग-अलग तरीके से रुपए वसूलते रहते हैं।" 

         "आज जो मैंने स्कूल में देखा तो मुझे लगा कि तुम्हें अपने बच्चों के कारण मुझसे ज्यादा महत्व मिल रहा है, तो फिर इससे अच्छा है मैं तुम्हें काम से अलग कर दूँ ताकि कल को सोसायटी वाले ये न कहें कि मेरा बच्चा मेरी ही नौकरानी के बच्चे से पीछे हो गया।" 

         "लेकिन मैम साब इसमें मेरा क्या दोष है? मैंने क्या किया है जबकि मेरे बच्चे को तो सरकार ने उस स्कूल के लिए चुना। मैं तो फीस भी नहीं भर सकती हूं और न ही मैं उसे स्कूल की किताबें खरीद सकती हूँ।" 

        "यही तो एक कारण है कि आज जब तुम्हारा बच्चा वहाँ पर ट्रॉफी ले रहा था और प्रिंसिपल ने तुमको वहाँ बुलाकर तुम्हारी तारीफ की और मेरे जैसे कितने पेरेंट्स जो इतना पैसा खर्च करते हैं, इतना डोनेशन देते हैं तब हमारा बच्चा उसे स्कूल में पहुँच पाता है। फिर फायदा क्या है कि मैं वहांँ जाकर तुम्हारे सामने अपने को छोटा महसूस करूँ, इससे बेहतर है कि तुम मेरे घर से छोड़ दो फिर तुम्हें जहाँ जी चाहे वहाँ करो। मुझे यह तो नहीं लगेगा कि मेरी कमाई पर ही पलने वाली एक नौकरानी का बेटा मेरे बेटे से आगे हो और वही नौकरानी वहाँ मंच पर खड़ी हो और मैं नीचे सीट पर बैठी होऊँ। इसलिए मैं आगे से ऐसी किसी भी स्थिति को सामना करने के लिए तैयार नहीं हूँ। और हां अब आगे से अपने बच्चे को मेरे पास पढ़ने के लिए भी मत भेजना।"

       "मैम आपको मैं ट्यूशन की फीस देती रहूँगी, आप मेरे बच्चे को पढ़ाती रहें।"

       "बिल्कुल नहीं मैं सारा समय अपने बच्चों को ही दूँँगी ताकि कल वह तुम्हारे बच्चे के जगह पर खड़ा हो और तुम्हारी जगह पर मैं।"

        

     मोहिनी की बात सुनकर राशि ने मन में सोचा - ओह तो ये पढ़े लिखे भी लोग इतनी गिरी सोच रखते है। मेधा पैसों से नहीं खरीदी जा सकती।

शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

मानवता ! (88)

         मानवता !     

     
                   सर्वेंट क्वार्टर में ड्राइवर की पत्नी पीड़ा से तड़प रही थी।  कोई ले जाने वाला नहीं था और पति के कर्मों का फल तो अब उसे ही भोगना था। वह भी इतनी शर्मिंदा थी कि मालकिन से आँखें मिलाने का साहस कैसे करती ? न वह कहीं जा सकती थी और न मालकिन से आँखें मिला सकती थी ।

                 इरा को ये पता था कि प्रसव  के लिए निशा कभी भी जा सकती है।  अपना दुःख तो अब खत्म नहीं होगा सोच कर उसने महाराजिन को बुलाया और कहा - "जा देख कर आ , वह ठीक तो है न "

"आप क्या कह रही हैं ?" महाराजिन ने विस्मय से कहा। इसके पति ने ही फिरौती के लिए इस घर का चिराग बुझाया है।
 
" लेकिन इसमें उस औरत का और आने वाले का क्या दोष ?"

                       महाराजिन ने जाकर देखा तो निशा दर्द से बेहाल थी,  उसने आकर मालकिन को बताया।  इरा ने जल्दी से गाड़ी निकाली और निशा को लेकर अस्पताल भागी। 

                      डॉक्टर ने भी बड़ी तत्परता से निशा का ऑपरेशन किया क्योंकि बच्चे के गले में नाल फँसी हुई थी , अगर थोड़ी सी भी देर हो जाती तो कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला था। इरा ने बच्चे को गोद में लेकर सीने से लगा लिया मानो उसको अपना बेटा वापस मिल गया हो।

                       जब निशा होश में आयी तो उसने सामने इरा को बच्चे को गोद  में लिए देखा। उसकी दोनों आँखों की कोर से आँसूं लुढ़क गए।  उसके पति ने जिस घर में अंधेरा किया। उसी ने जीवन में उजाला कर दिया।

   

बुधवार, 13 नवंबर 2024

हवेली की आत्मा ।*

हवेली की आत्मा! 

                                  वह मुरझाई सी एक कमरे में उदास बैठी थी । वर्षों से खाली हवेली के कमरों के आगे बने बरामदों में चमगादड़ों के घर बन चुके थे । रात के सन्नाटे सिर्फ सांय सांय ही तो सुनाई देती है । 

                 दुबे जी ने बड़े शौक बनवाई थी । क्या सोचा होगा ? बीच में बड़ा सा आँगन , उसके चारों तरफ बरामदे और उसमें खुलते कमरों के दरवाजे । सबके कमरे थे और रहती तो सिर्फ शिखा बिटिया थीं, जो दुबे जी की नातिन थी । लेकिन एक कमरा बिटिया का अलग ,.एक कमरे में मास्टर जी से गाना सीखती थीं । 

                     दीपक भैया इलाहाबाद में वकालत पढ़ने चले गये तो वहीं के होकर रह गये । शादी ब्याह हुआ तो मालकिन सोची कि बिटवा को तो वकालत ए ही खातिर पढ़ाई रही कि बाबूजी की गद्दी सभाँल लेंगे । अपन सोचा हुआ है कभी जो अब होता । जब तक मालिक मालकिन रहे , तिथि त्यौहार आ जाते थे । 

              पहले शिखा बिटिया का ब्याह हो गया तो सोचा कि अब दीपक भैया आ जायेंगे । यही गम में मालकिन चली गई । अंतिम समय दुबे जी कह गये थे कि इस कोठी को बेचना मत । नहीं बेची। 

           बेटा बाहर बस गया तो भी जायदाद किसे खलती है ।बेटियाँ अपने अपने घर की थी । जब द्वार खुला न मिले तो बेटियाँ किसके पास आयें ? मायके का नाम ख़त्म हो गया।  

            फिर वह कमरे से बाहर निकली और आँगन में लगे झूले को छुआ और मालकिन की तस्वीर देख रो पड़ी । मैं कहाँ जाऊँ ? फिर दुबे जी के आफिस में पहुँच गई , वैसे ही पूरे आफिस में गद्दे पड़े है और दुबे जी के गाव तकिए वैसे ही लगे थे । चारों ओर तस्वीरें टंगी हुई । अल्मारियों से कानून की किताबें जरूर दीपक बाबू ले गये थे । 

      खिड़की से बाहर झाँका तो बगिया बिक गई थी और किसी का ऊँचा सा मकान बन गया था । कोर्ट से आकर मालिक बगिया में चक्कर जरूर लगाते और माली को हिदायतें देते । सड़क की तरफ वाले बरामदे में बने पक्के तख्त पर जा बैठी मुवक्किलों के लिए बने थे । गाँव से शाम को आ जाते और सबेरे तारीख पर चले जाते । मालिक खाना पानी भी देते थे । 

           सुना है कि कौनो हवेली खरीदने आ रहा है , उसने सोच लिया कि जेहि दिन चाबी दीपक बाबू ने किसी को थमाई , वह यहाँ से चली जायेगी । दीपक बाबू आते हैं तो होटल में रुकते हैं । शाम को आये बाहर से कौनों रईस आकर देख गया और दीपक बाबू दूसरे दिन बेचने वाले है । उसने बातें बाहर वालों की सुनी थी । 

               हवेली की आत्मा आधी रात को हवेली छोड़ कर अनंत की ओर चली और एक भयानक आवाज के साथ हवेली जमींदोश हो गई ।

 

         

सोमवार, 4 नवंबर 2024

खेप !(67)

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                                                           खेप !


      "हां राम भरोसे नई खेप कब तक मिलेगी? बाहर वालों का दबाव बढ़ता जा रहा है।"

      "और कुछ दिन, कई जगह एजेंट भेजे हैं ,कहीं ना कहीं से आएगी।"

      " कोई झंझट नहीं चाहता मैं, डील हमारी तुमसे होगी आगे वालों को तुम देख लेना।"
      "ठीक है।"    
         यह खेप मौरंग, रेत, सीमेंट या ईंटों की नहीं थी बल्कि जीते जागते बच्चों की थी। गरीब के बच्चों को काम और दाम का लालच दिखाकर दूरदराज से लाया जाता था। उन्हीं में लड़कियाँँ भी शामिल होती थींं। उम्र के अनुसार काम लिया जाता था। भीख मँगवाना, जिस्मफरोसी, बालश्रम और कबूतरबाजी तक की जाती थी।
       अभी अभी ऑफिस पहुंचा ही था कि मौसमी का फोन आया - "सरस पार्क में खेलने गया था वहां से वापस नहीं आया है।"  
        " उसकी आया क्या कर रही थी?"

       "वहीं थी लेकिन किसी से बात कर रही थी और उसी में ही हो गया।"

       "मैं आता हूं।"

  जब घर पहुँचा था तो मौसमी बेहाल थी। एसपी और डीएसपी से लेकर उसने बच्चे को खोजने के लिए सारे महकमे में हड़कम्प मचा दिया। अपने आदमियों को दौड़ाया और खुद गाड़ी लेकर निकल गया ।

      थोड़ी दूर पहुंचा था कि उसके पास एक फोन आया  - "अपने बेटे को खोज रहे हो।"

      "हाँ, मिला क्या?"

      " मेरे पास है एक करोड़ फिरौती चाहिए।"

      "क्या दिमाग खराब है? मेरे बेटे को अगवा किया है, मैं छोड़ूँगा नहीं।"

      " तो चुपचाप पैसे दे दे बहुत कमा चुका तू।"

      "कुछ कम कर, इतना मेरे पास नहीं है।"

     " इससे ज्यादा वसूलता है बच्चों का,  जो भीख माँगते है और लड़कियों को देह व्यापार में धकेल देता है और अब तेरे बेटे का भी यही हश्र होगा।"

     "चुप करो मैं तुम्हें कुछ नहीं करने दूँँगा।"

     " क्यों?  क्या सिर्फ तुम ही कबूतरबाजी कर सकते हो?  कहाँँ जाओगे रिपोर्ट करने पुलिस के पास तो तुम्हारा कच्चा चिट्ठा पहले से पहुँँच जाएगा, इसलिए तू चुपचाप मुझे वह दे दे, जो मैं माँग रहा हूँ, नहीं तो बेटा भी नहीं मिलेगा।"

        तभी दूसरा फोन बजा और  आवाज आई - "खेप आ चुकी है, कहाँ पहुँचाना है ?"

      "किसी और को दे दे, कहीं मेरा बेटा भी किसी और खेप में शामिल न कर दिया जाय।"

  वह पागलों की तरह अपनी गाड़ी दौड़ा रहा था।  मन में सोचता जा रहा था - "अब कोई खेप नहीं बस भगवान मेरे बच्चे को वापस दिला दे।"

                वह स्टेयरिंग पर सिर रख कर फफक फफक कर रोने लगा ।

किन्नर ! (106)***

किन्नर ! 


          "हे ईश्वर मेरा क्या दोष है? जो मुझे इस रूप में पैदा किया।  क्या हमारे जीने की इच्छाएं , कामनाएं सिर्फ औरों को देने के लिए ही बनी हैं? शाम को आऊँगी तो उत्तर देना। " 

          संगीता आज अपने साथ वालों के साथ मंदिर आयी थी।  दूसरों की खुशियों में शामिल होकर खुश होना, नेग लेना और फिर अपने वाद्य उठा कर चल देना - यही जिंदगी है न। यह जिंदगी उसको कभी रास न आयी लेकिन बड़ी माँ ने पाला पोसा तो उसके साथ ही रहना है।

                          "एक नाम मिल गया था, उसे और न आगे कुछ न पीछे कुछ। बस एक ही जाति है उन सबकी "किन्नर।" जो उसके घर आता है तो वह यही नाम लेकर।  पैदा करने वाले का नाम क्यों पीछे छूट जाता है।  वे रखना क्यों नहीं चाहते हैं? एक बड़ी अम्मा हैं - चाहे जितने लोग आ जाय , गोद में लेकर कमाने तक साथ ही रहती हैं। "

                      घर आकर उसने कुछ खाया नहीं और चुपचाप जाकर लेट गयी।

                      शाम को उठी और चल दी मंदिर की ओर।  भारी भारी कदमों से क्योंकि उसको पता था कि बनाने वाला उसको कुछ भी नहीं देने वाला है फिर भी शायद उत्तर ही दे दे।

                       वह चुपचाप मंदिर की पीछे बैठ गयी, उसने सुना था कि भगवान मंदिर के पीछे कामना लेकर आने वालों की कामना पूरी करते हैं। उसको कुछ देर बाद अपना नाम पुकारते हुए कुछ सुनाई दिया।  उसने चारों ओर घूम कर देखा लेकिन कुछ भी नहीं था।  सामने पेड़ के पीछे एक प्रकाश पुंज दिखलाई दिया। संगीता आँखें फाड़ फाड़ कर देख रही थी। उसे लगा कोई कह रहा है , अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए तो सुन - " सदा औरों की ख़ुशी में खुश होने वाले उनको आशीष देने वाले तुम किन्नर हो लेकिन इस मानव जाति से अलग। सो तुम इन सबसे श्रेष्ठ हो। "