प्रियंका श्रीवास्तव

प्रियंका श्रीवास्तव

बुधवार, 13 नवंबर 2024

हवेली की आत्मा ।*

हवेली की आत्मा! 

                                  वह मुरझाई सी एक कमरे में उदास बैठी थी । वर्षों से खाली हवेली के कमरों के आगे बने बरामदों में चमगादड़ों के घर बन चुके थे । रात के सन्नाटे सिर्फ सांय सांय ही तो सुनाई देती है । 

                 दुबे जी ने बड़े शौक बनवाई थी । क्या सोचा होगा ? बीच में बड़ा सा आँगन , उसके चारों तरफ बरामदे और उसमें खुलते कमरों के दरवाजे । सबके कमरे थे और रहती तो सिर्फ शिखा बिटिया थीं, जो दुबे जी की नातिन थी । लेकिन एक कमरा बिटिया का अलग ,.एक कमरे में मास्टर जी से गाना सीखती थीं । 

                     दीपक भैया इलाहाबाद में वकालत पढ़ने चले गये तो वहीं के होकर रह गये । शादी ब्याह हुआ तो मालकिन सोची कि बिटवा को तो वकालत ए ही खातिर पढ़ाई रही कि बाबूजी की गद्दी सभाँल लेंगे । अपन सोचा हुआ है कभी जो अब होता । जब तक मालिक मालकिन रहे , तिथि त्यौहार आ जाते थे । 

              पहले शिखा बिटिया का ब्याह हो गया तो सोचा कि अब दीपक भैया आ जायेंगे । यही गम में मालकिन चली गई । अंतिम समय दुबे जी कह गये थे कि इस कोठी को बेचना मत । नहीं बेची। 

           बेटा बाहर बस गया तो भी जायदाद किसे खलती है ।बेटियाँ अपने अपने घर की थी । जब द्वार खुला न मिले तो बेटियाँ किसके पास आयें ? मायके का नाम ख़त्म हो गया।  

            फिर वह कमरे से बाहर निकली और आँगन में लगे झूले को छुआ और मालकिन की तस्वीर देख रो पड़ी । मैं कहाँ जाऊँ ? फिर दुबे जी के आफिस में पहुँच गई , वैसे ही पूरे आफिस में गद्दे पड़े है और दुबे जी के गाव तकिए वैसे ही लगे थे । चारों ओर तस्वीरें टंगी हुई । अल्मारियों से कानून की किताबें जरूर दीपक बाबू ले गये थे । 

      खिड़की से बाहर झाँका तो बगिया बिक गई थी और किसी का ऊँचा सा मकान बन गया था । कोर्ट से आकर मालिक बगिया में चक्कर जरूर लगाते और माली को हिदायतें देते । सड़क की तरफ वाले बरामदे में बने पक्के तख्त पर जा बैठी मुवक्किलों के लिए बने थे । गाँव से शाम को आ जाते और सबेरे तारीख पर चले जाते । मालिक खाना पानी भी देते थे । 

           सुना है कि कौनो हवेली खरीदने आ रहा है , उसने सोच लिया कि जेहि दिन चाबी दीपक बाबू ने किसी को थमाई , वह यहाँ से चली जायेगी । दीपक बाबू आते हैं तो होटल में रुकते हैं । शाम को आये बाहर से कौनों रईस आकर देख गया और दीपक बाबू दूसरे दिन बेचने वाले है । उसने बातें बाहर वालों की सुनी थी । 

               हवेली की आत्मा आधी रात को हवेली छोड़ कर अनंत की ओर चली और एक भयानक आवाज के साथ हवेली जमींदोश हो गई ।

 

         

सोमवार, 4 नवंबर 2024

खेप !(67)

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                                                           खेप !


      "हां राम भरोसे नई खेप कब तक मिलेगी? बाहर वालों का दबाव बढ़ता जा रहा है।"

      "और कुछ दिन, कई जगह एजेंट भेजे हैं ,कहीं ना कहीं से आएगी।"

      " कोई झंझट नहीं चाहता मैं, डील हमारी तुमसे होगी आगे वालों को तुम देख लेना।"
      "ठीक है।"    
         यह खेप मौरंग, रेत, सीमेंट या ईंटों की नहीं थी बल्कि जीते जागते बच्चों की थी। गरीब के बच्चों को काम और दाम का लालच दिखाकर दूरदराज से लाया जाता था। उन्हीं में लड़कियाँँ भी शामिल होती थींं। उम्र के अनुसार काम लिया जाता था। भीख मँगवाना, जिस्मफरोसी, बालश्रम और कबूतरबाजी तक की जाती थी।
       अभी अभी ऑफिस पहुंचा ही था कि मौसमी का फोन आया - "सरस पार्क में खेलने गया था वहां से वापस नहीं आया है।"  
        " उसकी आया क्या कर रही थी?"

       "वहीं थी लेकिन किसी से बात कर रही थी और उसी में ही हो गया।"

       "मैं आता हूं।"

  जब घर पहुँचा था तो मौसमी बेहाल थी। एसपी और डीएसपी से लेकर उसने बच्चे को खोजने के लिए सारे महकमे में हड़कम्प मचा दिया। अपने आदमियों को दौड़ाया और खुद गाड़ी लेकर निकल गया ।

      थोड़ी दूर पहुंचा था कि उसके पास एक फोन आया  - "अपने बेटे को खोज रहे हो।"

      "हाँ, मिला क्या?"

      " मेरे पास है एक करोड़ फिरौती चाहिए।"

      "क्या दिमाग खराब है? मेरे बेटे को अगवा किया है, मैं छोड़ूँगा नहीं।"

      " तो चुपचाप पैसे दे दे बहुत कमा चुका तू।"

      "कुछ कम कर, इतना मेरे पास नहीं है।"

     " इससे ज्यादा वसूलता है बच्चों का,  जो भीख माँगते है और लड़कियों को देह व्यापार में धकेल देता है और अब तेरे बेटे का भी यही हश्र होगा।"

     "चुप करो मैं तुम्हें कुछ नहीं करने दूँँगा।"

     " क्यों?  क्या सिर्फ तुम ही कबूतरबाजी कर सकते हो?  कहाँँ जाओगे रिपोर्ट करने पुलिस के पास तो तुम्हारा कच्चा चिट्ठा पहले से पहुँँच जाएगा, इसलिए तू चुपचाप मुझे वह दे दे, जो मैं माँग रहा हूँ, नहीं तो बेटा भी नहीं मिलेगा।"

        तभी दूसरा फोन बजा और  आवाज आई - "खेप आ चुकी है, कहाँ पहुँचाना है ?"

      "किसी और को दे दे, कहीं मेरा बेटा भी किसी और खेप में शामिल न कर दिया जाय।"

  वह पागलों की तरह अपनी गाड़ी दौड़ा रहा था।  मन में सोचता जा रहा था - "अब कोई खेप नहीं बस भगवान मेरे बच्चे को वापस दिला दे।"

                वह स्टेयरिंग पर सिर रख कर फफक फफक कर रोने लगा ।

किन्नर ! (106)***

किन्नर ! 


          "हे ईश्वर मेरा क्या दोष है? जो मुझे इस रूप में पैदा किया।  क्या हमारे जीने की इच्छाएं , कामनाएं सिर्फ औरों को देने के लिए ही बनी हैं? शाम को आऊँगी तो उत्तर देना। " 

          संगीता आज अपने साथ वालों के साथ मंदिर आयी थी।  दूसरों की खुशियों में शामिल होकर खुश होना, नेग लेना और फिर अपने वाद्य उठा कर चल देना - यही जिंदगी है न। यह जिंदगी उसको कभी रास न आयी लेकिन बड़ी माँ ने पाला पोसा तो उसके साथ ही रहना है।

                          "एक नाम मिल गया था, उसे और न आगे कुछ न पीछे कुछ। बस एक ही जाति है उन सबकी "किन्नर।" जो उसके घर आता है तो वह यही नाम लेकर।  पैदा करने वाले का नाम क्यों पीछे छूट जाता है।  वे रखना क्यों नहीं चाहते हैं? एक बड़ी अम्मा हैं - चाहे जितने लोग आ जाय , गोद में लेकर कमाने तक साथ ही रहती हैं। "

                      घर आकर उसने कुछ खाया नहीं और चुपचाप जाकर लेट गयी।

                      शाम को उठी और चल दी मंदिर की ओर।  भारी भारी कदमों से क्योंकि उसको पता था कि बनाने वाला उसको कुछ भी नहीं देने वाला है फिर भी शायद उत्तर ही दे दे।

                       वह चुपचाप मंदिर की पीछे बैठ गयी, उसने सुना था कि भगवान मंदिर के पीछे कामना लेकर आने वालों की कामना पूरी करते हैं। उसको कुछ देर बाद अपना नाम पुकारते हुए कुछ सुनाई दिया।  उसने चारों ओर घूम कर देखा लेकिन कुछ भी नहीं था।  सामने पेड़ के पीछे एक प्रकाश पुंज दिखलाई दिया। संगीता आँखें फाड़ फाड़ कर देख रही थी। उसे लगा कोई कह रहा है , अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए तो सुन - " सदा औरों की ख़ुशी में खुश होने वाले उनको आशीष देने वाले तुम किन्नर हो लेकिन इस मानव जाति से अलग। सो तुम इन सबसे श्रेष्ठ हो। "