हवेली की आत्मा!
वह मुरझाई सी एक कमरे में उदास बैठी थी । वर्षों से खाली हवेली के कमरों के आगे बने बरामदों में चमगादड़ों के घर बन चुके थे । रात के सन्नाटे सिर्फ सांय सांय ही तो सुनाई देती है ।
दुबे जी ने बड़े शौक बनवाई थी । क्या सोचा होगा ? बीच में बड़ा सा आँगन , उसके चारों तरफ बरामदे और उसमें खुलते कमरों के दरवाजे । सबके कमरे थे और रहती तो सिर्फ शिखा बिटिया थीं, जो दुबे जी की नातिन थी । लेकिन एक कमरा बिटिया का अलग ,.एक कमरे में मास्टर जी से गाना सीखती थीं ।
दीपक भैया इलाहाबाद में वकालत पढ़ने चले गये तो वहीं के होकर रह गये । शादी ब्याह हुआ तो मालकिन सोची कि बिटवा को तो वकालत ए ही खातिर पढ़ाई रही कि बाबूजी की गद्दी सभाँल लेंगे । अपन सोचा हुआ है कभी जो अब होता । जब तक मालिक मालकिन रहे , तिथि त्यौहार आ जाते थे ।
पहले शिखा बिटिया का ब्याह हो गया तो सोचा कि अब दीपक भैया आ जायेंगे । यही गम में मालकिन चली गई । अंतिम समय दुबे जी कह गये थे कि इस कोठी को बेचना मत । नहीं बेची।
बेटा बाहर बस गया तो भी जायदाद किसे खलती है ।बेटियाँ अपने अपने घर की थी । जब द्वार खुला न मिले तो बेटियाँ किसके पास आयें ? मायके का नाम ख़त्म हो गया।
फिर वह कमरे से बाहर निकली और आँगन में लगे झूले को छुआ और मालकिन की तस्वीर देख रो पड़ी । मैं कहाँ जाऊँ ? फिर दुबे जी के आफिस में पहुँच गई , वैसे ही पूरे आफिस में गद्दे पड़े है और दुबे जी के गाव तकिए वैसे ही लगे थे । चारों ओर तस्वीरें टंगी हुई । अल्मारियों से कानून की किताबें जरूर दीपक बाबू ले गये थे ।
खिड़की से बाहर झाँका तो बगिया बिक गई थी और किसी का ऊँचा सा मकान बन गया था । कोर्ट से आकर मालिक बगिया में चक्कर जरूर लगाते और माली को हिदायतें देते । सड़क की तरफ वाले बरामदे में बने पक्के तख्त पर जा बैठी मुवक्किलों के लिए बने थे । गाँव से शाम को आ जाते और सबेरे तारीख पर चले जाते । मालिक खाना पानी भी देते थे ।
सुना है कि कौनो हवेली खरीदने आ रहा है , उसने सोच लिया कि जेहि दिन चाबी दीपक बाबू ने किसी को थमाई , वह यहाँ से चली जायेगी । दीपक बाबू आते हैं तो होटल में रुकते हैं । शाम को आये बाहर से कौनों रईस आकर देख गया और दीपक बाबू दूसरे दिन बेचने वाले है । उसने बातें बाहर वालों की सुनी थी ।
हवेली की आत्मा आधी रात को हवेली छोड़ कर अनंत की ओर चली और एक भयानक आवाज के साथ हवेली जमींदोश हो गई ।