क्षरण !
"अरे ये क्या , हम क्या थे और क्या हो गये ?"
"तुम हो कौन भाई , इस तरह क्यों बोल रहे हो ?"
" भाई मैं संस्कार और संस्कृति हूँ । सृष्टि के साथ साथ आये थे हम , धीरे धीरे आदमी को जंगली से सभ्य बनाया था ।"
"आपको कष्ट क्या है?" समाज बोला ।
"
कष्ट ये है कि आज से चार पीढ़ी पहले हमने सुख शान्ति से जीते परिवार , गाँव
देखे थे । वे हमारी छाया में ही पल रहे थे । हर इंसान एक रिश्ते से बंधा
था । ऊँचे , नीचे और जाति पाति से नहीं । भूखा कोई न मरता था , जो मालिक थे
पेट भरने को अनाज देते थे । नाम तो लेना ही नहीं काका-काकी, भैया -भौजी,
दादा- दाई ही कहते रहे , न जाने कौन छोटा और कौन बड़ा ।"
"इसमें क्या बड़ी बात , आदमी पढ़ेगा लिखेगा तो इज्जतदार बनता है और फिर
अपने स्तर के लोगों से ही मेलजोल रखता है ।" समाज ने दलील दी ।
" वहीं से तो क्षरण हुआ हमारा , जो हमें इज्जत देते थे और उनके बच्चे शहर
पढने गये तो संस्कार छान कर लिए यानी पिता से कम ग्रहण किये । पढ़ाई लिखाई
की हनक आ गई । जुड़े रहे गाँव से । यहीं रहकर नौकरी कर ली ।"
" फिर क्या हुआ? गाँव में ही रहे न । औरों को भी शिक्षित किया ।" समाज उस बदलाव को अब भी नहीं समझ पाया ।
संस्कार ने गहरी साँस ली और चलने को हुआ तो समाज बोला -"पूरी बात तो करते जाओ ।"
" लंबी गाथा है सुनोगे , अभी दो पीढ़ी बाकी है। तीसरी पीढ़ी के बच्चे जल्दी
ही शहर निकल गये पढ़ाई के लिए , कभी तीज त्यौहार आ गये तो बहुत है । हमें वे
उतना ही ले पाये जितना यहाँ रहे । दूसरी पीढ़ी से भी कम , अपने परिवार तक
सीमित चाचा ,बुआ, मामा और मौसी तक बोलते रहे । अंग्रेजी में बोलने लगे ।"
" वह शहर के होकर रह गये और भी कम संस्कार ले पाये । अंग्रेज बनने के
चक्कर में नाते रिश्ते सब खत्म । इज्जत देने के तरीके बदल गये अब कोई पैर
बड़ों के नहीं छूता , घुटने तक आ गये । उनके आगे की चौथी पीढ़ी संस्कार विहीन
हो गई । जीवित पिता को डैड कर दिया और माँ को ममी । खून के रिश्ते और पास
पड़ोसी ,परिचित सब अंकल आँटी हो गए । चंद बूँदें मिली उन्हें कि पिता को
अपने कमाने तक इज्जत दी और फिर जीवन में माता-पिता की जरूरत खत्म ।"
"कुछ और सुनना है , ये क्षरण हुआ हमारा न हम देशी रहे न विदेशी हुए ।"
तुम तो समय के रंग में रंग जाते हो लेकिन संस्कृति और संस्कार स्वरूप बदलते बदलते दम तोड़ देते है ।