विदा कर आये ।"
लेकिन अंदर ही अंदर उसकी आत्मा धिक्कार रही थी, पुत्र होकर भी मां को कंधा तक न दे पाया।●
आत्मसम्मान !
अन्त्येष्टि सम्पन्न हुई और शंकर खाली हाथ गाँव पहुँचा
तो उसके मुँह से निकला - "माँ की इच्छा गंगाघाट पर जाने की थी सो हम वहीं
से
माँ के न रहने का समाचार जैसे ही शंकर को मिला।
वह दीदी के यहाँ पहुँचा तो शवयात्रा शुरू होने जा रही थी ।
शंकर बोले - "अब अम्मा की मिट्टी गाँव जायेगी ।"
" नहीं उनकी विदाई यहीं से होगी गंगा घाट के लिए ।" आवाज दीदी की थी ।
अर्थी उठाई जाने लगी तो दो ओर उनके नाती और जैसे ही शंकर
ने कंधा देना चाहा दामाद ने रोक दिया - " मिट्टी को हाथ न लगाना साले साहब
।"
शंकर ने सोचा चलो घाट पर लगा लूँगा अग्नि तो मैं ही दूंगा
आखिर बेटा जो हूँ । सारी तैयारी होने पर शंकर सामने आया तो बड़े नाती ने रोक
दिया - "मामा आपने नानी को इसी वचन के साथ माँ के साथ भेजा था कि नानी का
आप मुँह नहीं देखेंगे और दो सालों में न कोई खबर ही ली न ही आप मिलने आये।
अब यह हक आप खो चुके हैं।"