सोमवार, 4 नवंबर 2024

किन्नर ! (106)***

किन्नर ! 


          "हे ईश्वर मेरा क्या दोष है? जो मुझे इस रूप में पैदा किया।  क्या हमारे जीने की इच्छाएं , कामनाएं सिर्फ औरों को देने के लिए ही बनी हैं? शाम को आऊँगी तो उत्तर देना। " 

          संगीता आज अपने साथ वालों के साथ मंदिर आयी थी।  दूसरों की खुशियों में शामिल होकर खुश होना, नेग लेना और फिर अपने वाद्य उठा कर चल देना - यही जिंदगी है न। यह जिंदगी उसको कभी रास न आयी लेकिन बड़ी माँ ने पाला पोसा तो उसके साथ ही रहना है।

                          "एक नाम मिल गया था, उसे और न आगे कुछ न पीछे कुछ। बस एक ही जाति है उन सबकी "किन्नर।" जो उसके घर आता है तो वह यही नाम लेकर।  पैदा करने वाले का नाम क्यों पीछे छूट जाता है।  वे रखना क्यों नहीं चाहते हैं? एक बड़ी अम्मा हैं - चाहे जितने लोग आ जाय , गोद में लेकर कमाने तक साथ ही रहती हैं। "

                      घर आकर उसने कुछ खाया नहीं और चुपचाप जाकर लेट गयी।

                      शाम को उठी और चल दी मंदिर की ओर।  भारी भारी कदमों से क्योंकि उसको पता था कि बनाने वाला उसको कुछ भी नहीं देने वाला है फिर भी शायद उत्तर ही दे दे।

                       वह चुपचाप मंदिर की पीछे बैठ गयी, उसने सुना था कि भगवान मंदिर के पीछे कामना लेकर आने वालों की कामना पूरी करते हैं। उसको कुछ देर बाद अपना नाम पुकारते हुए कुछ सुनाई दिया।  उसने चारों ओर घूम कर देखा लेकिन कुछ भी नहीं था।  सामने पेड़ के पीछे एक प्रकाश पुंज दिखलाई दिया। संगीता आँखें फाड़ फाड़ कर देख रही थी। उसे लगा कोई कह रहा है , अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए तो सुन - " सदा औरों की ख़ुशी में खुश होने वाले उनको आशीष देने वाले तुम किन्नर हो लेकिन इस मानव जाति से अलग। सो तुम इन सबसे श्रेष्ठ हो। "

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